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श्रीमदभगवतगीता में पर्यावरण की चिंता

ghumantu
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श्रीमदभगवतगीता एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमे मै अपने निजी अनुभव का आधार लेकर बात करू तो इस निष्कर्ष पर पहुचता हु की यह दुनिया का एक मात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसमे दुनिया के सभी प्रकार के चिन्ताओ का मुकम्मल उपाय बताया गया है। दुनिया का कोई भी विषय भगवान् श्री कृष्ण ने इस ७०० श्लोक के ग्रन्थ में नहीं छोढ़ा है।पर्यावरणीय असंतुलन आज के समय में एक ऐसा मुद्दा है जो की इंसान के अस्तित्व पर संकट बन कर आ गया है।
ध्यान से समझने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुचाते है की इस तरह का असंतुलन होने का मुख्य कारन हमारे जीवन शैली में आने वाला परिवर्तन है जिसमे हमने इस धरती को माँ मानना बंद कर दिए । हमें अपने माँ का दूध पिने का अधिकार तो अवश्य है पर उसका खून चूसने का अधिकार कदापि नहीं है लेकिन पश्चिमी विचारधारा के आने से हमने धरती के दोहन के बदले शोषण का सिद्धांत अपना लिया।जिसको जितना मौका मिल रहा वह उतना तेजी से धरती के अनमोल संसाधनों का दोहन कर रहा है बिना यह विचार लाये की यदि हम किसी से कुछ लेते है तो उसके बदले में कुछ लौटाना भी हमारा फ़र्ज़ है । परन्तु स्वार्थ भरी इस दुनिया में जब लोग अपने घर परिवार के लोगो का शोसन करने से बाज़ नहीं आते तो धरती माँ क्या बड़ी चीज हैं । अब हम सीधे अपने विषय पर लौटते है ।
गीता में अध्याय ३ के श्लोक संख्या १०, ११ ,१२,१३ में धरती के विभिन्न अवयवो के संतुलन के बारे में समझाया गया है ,हम सर्वप्रथम श्लोक संख्या १० देखते है ।
हिंदी अर्थ ”प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में प्रजा सहित देवताओ की रचना की एवं प्रजा को कहा की इन देवताओ को यज्ञ के द्वारा यदि तुम लोग खुश रखोगे तो ये देवता तुम्हे तुम्हारे सरे इच्छित वर तुम्हे प्रदान करेंगे”
सबसे पहले देवता शब्द की विवेचना करते है,देवता वे होते है जो मनुष्य को जीने के लिए इच्छित वस्तुओ को प्रदान करने की सामर्थ्य रखते है ।और यदि हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सोचे तो निम्न चीजे ध्यान में आती है जिनमे मनुष्य को जीवन देने की छमता पाई जाती है ।
१…वायुमंडल जिसमे ऑक्सीजन पाया जाता है जिसे गीता में कई जगह पान वायु या प्राण वायु कहा गया है
२…मृदा अर्थात मिटटी जिसमे हम अनाज उपजाते है और पेट भरते है
३…जल अर्थात पानी जो की इसी मिटटी के निचे होती है जो की शरीर के लिए अति आवश्यक है
४…वृष्टि अर्थात वर्षा जो की भूजल एवं उपज दोनों के लिए आवश्यक है
5…गो अर्थात गाय जो की अनाज की उपज एवं भोजन में रस की पूर्ति के लिए आवश्यक है
६…इसी क्रम में ऊपर के सभी देवताओ को खुश करने हेतु पौधे अति आवश्यक है
इस तरह से हम देखते है की ये ६ हमारे मुख्य देवता है ।
अब हम श्लोक संख्या ११ पर आना चाहेंगे जिसका हिंदी अर्थ निम्नवत है
”प्रजा यज्ञ के द्वारा देवताओ को खुश रखे तो वे देवता प्रजा को हर तरह से उन्नत बनायेंगे ,इस प्रकार दोनों लोग यानि प्रजा और देवता दोनों निस्वार्थ भाव से एक दुसरे का कल्याण करेंगे एवं दोनों ही परम कल्याण को प्राप्त होंगे”
अब प्रश्न ये है की यज्ञ क्या होता है ??
ऊपर श्लोक से प्रतीत होता है की कोई भी कार्य जो देवताओ को पुष्ट करे वो यज्ञ होता है ।
यदि वायुदेव(वायुमंडल) को खुश रखना है है तो हमें ऐसा कार्य (यज्ञ) करना होगा जो की उनको पुष्ट करे जैसे की वायु प्रदुषण न करना पौधारोपण करके उनको शुद्ध बनाए रखना ,मिट्टी जिस पर हम खेती करते है उसको प्रदूषित न करना जैसा की आज के समय में हम देख रहे है की विभिन्न कीटनाशको के प्रयोग से धरती से उत्पन्न अनाज शरीर पर कुप्रभाव डाल रहे है उसपर भी हमे सोचना पढ़ेगा , भूजल एवं वर्षा का जल दोनों ही जल चक्र यानि वाटर साइकिल के हिस्से है अतः इस साइकिल को ठीक रखना भी एक तरह का यज्ञ ही मन जायेगा, शायद इसीलिए हमारे देश में सभी नदियों को देवी का दर्ज़ा प्राप्त है देवी शब्द देवता का ही स्त्रीलिंग है अतः नदिया जो की पुरे विश्व में सभी सभ्यताओ का उदय्स्थान रही है हमारे शहरों में पेयजल का मुख्याधार ये नदिया है अतः इन नदियों को खुश रखना यानि इनके लिए यज्ञ करना भी प्रजा का कर्त्तव्य है।अब हम बात करते है गाय की जिसके बारे में हम सभी जानते है की गाय हर तरह से मनुष्य को फायदा पहुचाती है अतः इनके उचित देख रेख की जिम्मेवारी भी मनुष्य की है अंतिम स्थान पौधों पर आते है ये खुद तो देवता है ही पर साथ ही साथ यज्ञ भी है अतः इनकी सेवा करने से हम न केवल इस देवता विशेष के लिए यज्ञ करते है बल्कि अन्य देवता जैसे की वायुदेव धरतीमाता जलदेव (वाटर साइकिल) इत्यादि भी तृप्त हो जाते है ।
श्लोक में साफ साफ लिखा है की यदि हम यज्ञ नहीं करेंगे तो ये देवता हमे इच्छित वर नहीं देंगे परन्तु हम पश्चिमी विचारधारा के अधीन होकर हम इन देवताओ से इच्छित वर तो जरुर चाहते है परन्तु इनके लिए उचित यज्ञ नहीं करना चाहते जिसके कारन इन देवताओ और प्रजाओ के बिच सम्बन्ध खराब होता जा रहा है ।जिसके कारन पर्यावरण प्रदुषण बढ़ता जा रहा है । प्रकृति में उपस्थित इन श्रोतो को जब तक हम देवता मन कर इनका उचित देखरेख करते रहे तब तक कोई समस्या नहीं आई पर आज हम इसे केवल और केवल संशाधन मान बैठे जिसके वजह हमें इनका मालिक होने की झूठी भावना घर कर गयी और आज हम उसका परिणाम भोग रहे है ।
अब श्लोक शंख्या १२ पर आते है जिसका हिंदी में अर्थ निम्नवत है
”यज्ञ के द्वारा पोषित किये हुए देवता बिना मांगे ही प्रजा को इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे ,इस प्रकार उन देवताओ द्वारा दिए गए भोगो को जो पुरुष बिना लौटाए भोगता है ,वह तो चोर ही है”
अर्थात बिना इन देवताओ की सेवा किये हमें इनसे मिलने वाले लाभों को लेना चोरी करने के सामान है उदाहरण के लिए मान लीजिये की हम रोज़ वायुदेव से ऑक्सीजन लेते है पर उसके बदले हमने पौधे लगाकर उसको नहीं लौटाया तो हम चोर कहलायेंगे, या फिर मान लीजिये की हम रोज़ नदी से पानी अपने विभिन्न कार्यो के लिए लेते है तब हम यदि उसे साफ़ करने में उसकी मदद नहीं करेंगे तो हम चोर है।
अब श्लोक संख्या १३ पर आते है
”यज्ञ से बचे हुए अन्ना को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापो से मुक्त हो जाते है और जो पापी लोग केवल अपना शरीर पोषण के लिए अन्ना पकाते है वे तो पाप को ही खाते है”
अर्थात देवताओ द्वारा दिए गए भोग की वस्तुओ को भोगने से पहले ही उनके यज्ञ यानि किस तरह से उन वस्तुओ को लौटाए इस पर विचार करना चाहिए और ऐशे महान पुरुष सभी पापो से मुक्त हो जाते है परन्तु अब बात बात करते है आज के भोगवादी समाज की जो केवल और केवल अपने शरीर के बारे में सोचते है और प्रकृति का हर तरह से शोसन करते है परन्तु उसके बदले उसकी किसी तरह सेवा नहीं करते ऐसे लोग पापी नीच होते है ।
अब श्लोक संख्या १४ पर आते है
”संपूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते है और अन्ना वर्षा जल से और वर्षा यज्ञ से और यज्ञ वैदिक कर्म से और वैदिक कर्म और वेद से और वेद परमपिता से उत्पन्न है इस तरह यज्ञ में परमपिता शामिल रहते है अतः यज्ञ एक दैवीय कराया है”
इस श्लोक में यह बताया गया है की यज्ञ जैसा सुभ कार्य परमात्मा को अपने निकट महसूस करने और पाने का राश्ता है अतः ऐसे कार्य निश्चित ही करने चाहिए ।
इन श्लोको से यह पता चलता है की भगवान् श्री कृष्ण बेहद ही दूरदर्शी व्यक्ति थे जिन्होंने यह जान लिया था की एक समय अवश्य ही ऐसा आएगा जब मनुष्य इस प्रक्रति को अपनी बपौती समझ लेगा अतः उन्होंने पर्यावरण संतुलन को लेकर पहले से ही स्पष्ट निर्देश दे रखा था ।
अतः श्रीमद भगवतगीता से प्रेरणा लेकर हमें निश्चित ही ऐसे सुभ कार्य करने चाहिए जो की हमारी प्रकृति माता को सभी कष्टों से मुक्त करे जिससे न केवल मानव समाज बल्कि सभी जीवो का जीवन आसान हो सके ।
आपका अपना डॉ. भूपेंद्र

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