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जाति व्यवस्था और गीता

ghumantu
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हमारे हिन्दू समाज में जाति व्यवस्था आज के समय में एक विघटन कारी ताकत के रूप में दिखाई दे रही है। यह आज के समय में हिन्दुओ की कमजोरी का मुख्य कारन नज़र आ रही है परन्तु जब हम इतिहास के पन्ने पलटते है तो पता चलता है की जो व्यवस्था आज हमें नज़र आ रही है वो न केवल आज से हजारो साल पहले के सामाजिक परिस्थितियों के पुर्णतः अनुकूल थी बल्कि यदि आज भी यदि उसे सही रूप में लागु किया जाय तो हमारे समाज के लिए हितकारी होंगी ।
आज से हजारो साल पहले जब नगर और गाव छोटे छोटे हुआ करते थे और इनमे आपस में परिवहन व्यवस्था कमज़ोर होती थी तब ये संभव नहीं था हर छोटे छोटे काम के लिए लोग अलग अलग जगह पर यात्रा करे क्योकि तब के समय में यात्रा बेहद लम्बा खीच जाता था अतः इस कमी को पूरा करने के लिए प्रत्येक गाव और नगर को एक स्वतंत्र इकाई बनने पर मजबूर होना पढ़ा । एक ऐसी स्वतंत्र इकाई जिसमे उस समाज के हर आवश्यक काम को बिना अन्य जगह पर जाये पूरा किया जा सके अतः इस जरुरत को पूरा करने के लिए जाति नामक व्यवस्था का जन्म हुआ।
एक ऐसी व्यवस्था जिसमे एक ही जगह पर अलग अलग कार्यो को जानने वाले विशेषज्ञ मील सके । जैसे की अध्ययन अध्यापन के लिए ब्राहमण, सुरक्छा हेतु छत्रिय, गोपालन हेतु ग्वाले ,भेड़ पालन हेतु गढ़ेरिये ,सुकर पालन हेतु पासी , सब्जी की खेती के लिए कोइरी , अनाज की खेती हेतु कुर्मी ,फूलो की खेती हेतु माली , वैदिक काल से ही प्रसिद्द पान की खेती हेतु चौरसिया , औसधी हेतु वैद्य , लोहा का काम करने के लिए लोहार ,लकड़ी का काम करने के लिए बढई,साज़ सज्जा का काम देखने के लिए नाइ ,कपडे का काम करने के लिए जुलाहे उनको रंगने के लिए बजाज उनको सिलने के लिए दरजी , तेल के काम करने वाले साहू , बाग़ देखने के लिए खटिक इत्यादि तमाम जातीय तैयार हो गयी ये वास्तव में वो लोग थे जो अपने अपने कार्यो में बेहद पारंगत थे। इस तरह से हम देख रहे है की तब की विशिस्ट आवश्यकता ने जाती नामक व्यवस्था को जनम दिया ।
परन्तु आज के तथा कथित बुद्धजीवी वर्ग पूरी जाती व्यवस्था को केवल आज के समस्याओ को देखकर गलत ठहरा देता है क्योकि आज वर्ण के आधार पर उच्च नीच का भेद शुरू हो गया क्योकि जो जाति व्यवस्था कर्म आधारित थी वो धीरे धीरे जन्म आधारित हो गयी। चुकी जाति का व्यवस्थित वर्णन गीता में मिलता है अतः तमाम साम्यवादियो ने गीता को गाली देना शुरू कर दिया और ये प्रचारित किया की गीता ऐसी पुस्तक है जो लोगो को लोगो से अलग कर देती है परन्तु जब हम ध्यान से अध्ययन करते है तो पता चलता है की ये सारे आरोप पूर्णतया तथ्य से परे है।
श्री मद्भाग्वात्गीता में जाति व्यवस्था के बारे में समुचित ढंग से अध्याय १८ में लिखा गया है परन्तु कई जगहों पर उसकी भूमिका हम बनते देख सकते है। सर्वप्रथम हम बात करते है अध्याय ४ श्लोक संख्या १३ की जिसका हिंदी अर्थ निम्नवत है
”चार वर्णों की मेरी यह श्रृष्टि व्यक्ति के स्वाभाविक गुण और कर्मो के आधार पर बाटी गयी है परन्तु हे अर्जुन मै इनका रचनाकार होते हुए भी इनसे मुक्त हु”
इस श्लोक का ध्यान से समझा जाय तो श्री कृष्ण कहते है की इस प्रकृति में मनुष्य को चार जातियों में बाटा गया है लेकिन साथ ही बाटने के तरीके का भी उल्लेख कर दिया गया है साफ़ साफ़ लिखा है की यह बटवारा गुण और कर्मो के आधार पर होगा परन्तु इसमें श्री कृष्ण बड़े ही सावधानी से व्यक्ति के स्वाभाविक गुण की बात कार देते है । दरअसल गुण कर्म और स्वाभाविक गुण और कर्म में एक अंतर है गुण और कर्म तो मेहनत करके और मन मार के सीखे जा सकते है परन्तु स्वाभाविक गुण कर्म वो होता है जिसमे अपने आप व्यक्ति का मन लगा रहता है जैसा की आज कल की भाषा में कहे तो अपने होबी को अपना प्रोफेसन बनाना और हम जानते है की जो लोग अपने होबी को अपना प्रोफेसन बनाते है वो उस काम को बिना बोझ महसूस किये बेहद अच्छे से कर पाते है ।
अब किसके काम को छोटा कहे किसको बड़ा इसका उत्तर श्री कृष्ण अगले ही अध्याय में दे देते है। अध्याय ५ श्लोक संख्या १८ का हम हिंदी अर्थ देखते है
”पूर्ण रूप से ज्ञानी व्यक्ति विद्या विनय युक्त ब्रह्मण,गाय.कुत्ता, हाथी और यहाँ तक की अन्य छोटे जीवो में कोई अंतर नहीं देखता”
इस श्लोक से स्पष्ट है की कोई भी समझदार व्यक्ति जानवर जैसे की कुत्ता हाथी इत्यादि तक को एक सज्जन व्यक्ति के बराबर ही सम्मान देता है तो फिर मनुष्यों की बात ही क्या है। यदि मनुष्य के विभिन्न वर्णों के बिच उच्च नीच का भाव आ रहा है तो यह पूर्ण रूप से मुर्खता की निसानी है क्योकि बुद्धिमान व्यक्ति सबमे परमपिता की ही छाया पता है अतः वह किसी तरह का उच्च नीच नहीं कर सकता।
अब हम चर्चा करते है अध्याय १८ की जिसमे समस्त जाति व्यवस्था को अच्छे तरीके से समझाया गया है.. सबसे पहले श्लोक संख्या ४१ देखते है
”हे अर्जुन ब्राह्मन छत्रिय वैश्य और सूद्र इन चारो के अपने स्वाभाव से उत्पन्न गुणों के आधार अलग अलग कार्यो के लिए विभाजित किया गया है ”
ध्यान देने वाली बात है की यहाँ पर भी स्वाभाव से उत्पन्न गुण की बात की जा रही है न की जबरदस्ती सिखाने की बात हो रही है।
अब हम श्लोक संख्या ४२ देखते है जिसमे ब्राह्मन के कार्य विस्तार से बताये गए है
”आत्म नियंत्रण तप शुद्दता दया आर्जव समानता ज्ञान विज्ञान ये सब के सब ब्राह्मन के स्वाभाविक गुण है ”
इसमे कही नहीं लिखा गया है की पूजा पाठ दुनिया भर का ढोंग करना ब्राह्मन का कार्य है बल्कि ये लिखा गया है की व्यक्ति में पाए जाने वाले उच्चतम गुणों के समुच्चय को हम ब्राह्मन कह सकते है।
श्लोक ४३ देखते है जिसमे छत्रिय के स्वाभाविक गुणों को बताया गया है
” शौर्य तेज़ चालाकी दृढ़ता दान और युद्ध में न भागना ये सब छत्रिय के स्वाभाविक कर्म है”
ऐसे गुण जो की एक राजा और उसके सैनिक में होने चाहिए उसको यहाँ पर बताया गया है ।
श्लोक संख्या ४४ देखते है
”कृषि गौपालन वाणिज्य यह वैश्य का स्वाभाविक कर्म है और सभी वर्णों की सेवा करना सूद्र का स्वाभाविक कर्त्तव्य है ”
अब प्रश्न यह खड़ा हो सकता है की की सभी लोगो के कर्म एक बराबर है या ब्राह्मन के कर्म श्रेष्ठ और सूद्र का कर्म नीच ???
क्या सभी व्यक्ति अपने अपने कर्म को करते हुए सामान प्रतिफल पा सकते है ?? इसका उत्तर श्री कृष्ण अगले ही श्लोक में देते है । जिसका हिंदी निम्नवत है..
”अपने अपने योग्यता से स्वाभाविक कर्त्तव्य में लगा हुआ व्यक्ति परमसिद्धि को प्राप्त होता है ”
इस श्लोक में यह स्पष्ट है की चाहे किसी भी वर्ण का व्यक्ति क्यों न हो यदि वह अपना कार्य सही और इमानदार तरीके से करे तो वो भगवत प्राप्ति का सामान अधिकार रखते है अतः किसी को भी अपना कार्य छोटा न समझते हुए अपने कार्य को मन लगाकर करना चाहिए।
अब हम श्लोक संख्या ४७ पर आते है जिसके अनुसार कहा गया है की ”अच्छी तरह अनुष्ठान किये हुए दुसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म परमकल्याण कारक है , स्वाभाव से निर्धारित किया हुआ कर्म करता हुआ मनुष्य अवागंमन से मुक्त हो जाता है”
इस बात की पूरी शंका थी की ब्रह्मण का कर्म देखने में सबको आकर्षित करता है अतः वे लोग जिनमे वैसे स्वाभाविक गुण नहीं है वे भी दिखावे के लिए वैसा कार्य कर सकते है क्योकि एक नज़र में उनका कार्य ज्यादा श्रेष्ठ लगता है । जबकि ऐसे दिखावे से समाज और व्यक्ति दोनों की केवल हानि ही हानि है क्योकि जिस कार्य में व्यक्ति का मन नहीं लगता उस कार्य में न तो वह श्रेष्टता हासिल कर सकता है न ही वो किसी भी तरह खुश रह सकता है । अतः श्री कृष्ण जी कहते है की भले अपना धर्म देखने में खराब क्यों न लगे परन्तु उसी को निष्ठा पूर्वक करना चाहिए ।
अब हम श्लोक संख्या ४८ देखते है
”हे अर्जुन स्वाभाव से उत्पन्न अपने कर्म को दोषयुक्त होने पर भी नहीं त्यागना चाहिए क्योकि जिस तरह से अग्नि यानि तेज़ को धुएं यानि कालिख से अलग नहीं कर सकते उसी तरह किसी भी कर्म को दोष से अलग नहीं कर सकते”
इस श्लोक के अनुसार व्यक्ति चाहे जिस वर्ण का क्यों न हो अर्थात उसका स्वाभाव चाहे जैसे सद्कार्यो में क्यों न लगता हो उसे उस कार्य का दोष देखकर नहीं भागना चाहिए क्योकि उस कार्य को वह त्याग कर चाहे जिस कार्य को अपना ले दोष तो हर कार्य में ही होता है ऐसा नहीं है की सूद्र का कार्य ही केवल दोषयुक्त होता है और ब्रह्मण का नहीं।
अतः हम देख रहे है की गीता के अनुसार जाती व्यवस्था निम्नवत है …….
१..जाति जन्म आधारित न होकर कर्म आधारित है।
२..बुद्धिमान व्यक्ति सभी को सामान दृष्टी से देखता है ।
३..व्यक्ति को वही कार्य करना चाहिए जिसमे उसका मन लगता हो ।
४..किसी भी वर्ण का कार्य समाज को चलाने के लिए सामान महत्व रखता है ।
५..उच्च वर्ण के कार्य यदि देखने सुनाने में यदि अच्छे भी लगी तो भी हमे वही कार्य करना चाहिए जिसके लिए हम बने है ।
६..कार्य चाहे छोटा हो या बना इश्वर उसे समान महत्व देता है अतः हमें भी ऐसा ही सोचना चाहिए ।
७..किसी को भी अपने वर्ण के अनुसार अपने आप को उचा कहने का अधिकार नहीं है क्योकि इश्वर के अनुसार प्रत्येक कार्य इमानदारी से करने से परम कल्याण को प्राप्त करा सकते है ।
आपका अपना डॉ. भूपेंद्र

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