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ऐसा होगा आदर्श आरक्षण !

ghumantu
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मित्रो आरक्षण हमेशा एक विवादित विषय रहा है , और इस पर अलग अलग लोगो की अलग अलग राय रही है . कोई कहता है की इसे आर्थिक आधार पर किया जाय ,तो कोई कहता है की सामाजिक आधार पर किया जाय , वही कुछ ऐसे भी मित्र हैं जिनका कहना है की इसकी जरुरत ही क्या है? मित्रो यह देश हमेशा सबको बराबर मानकर चलने वाला देश रहा है . लेकिन लगातार विदेशी आक्रान्ताओं के आक्रमण ने इस देश की संस्कृति को इस तरह से दूषित किया की हम लोग अपने ही भाइयो ,बंधुओ पर अत्याचार करने लगे. अपने ही लोगो को कमर में झाडू और गले में थूकने के लिए लोटा लेकर चलने को मजबूर किया क्या ये जघन्य पाप नहीं है जो हम लोगो ने अपने ही भाइयो पर किया , वीर सावरकर की बेहद तथ्यात्मक किताब ”six glorious pages in history of india ” में पढ़ने से ये पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है की भारत में सवर्ण ,दलित इत्यादि का विभाजन विदेशी आक्रमण के साथ ही हुआ . वरना इसी देश में कोइरी जाती का चन्द्रगुप्त मौर्य और उसके बच्चे इस देश के सम्राट हुए . वैश्य समुदाय से ताल्लुकात रखने वाले आदिगुप्त ,कुमार गुप्त समुद्रगुप्त इस देश के राज़ सिंहाशन पर न केवल बैठे बल्कि इस देश को इसके स्वर्णिम युग में लेकर गए . इसी देश में महाराज सुहेल देव पासी जैसे सुवर पालन करने वाले जाती के राजा को लोगो ने अपने दिल में स्थान दिया और उस राजा ने भी अपने जान पर खेलकर विदेशी आक्रंताओ से लड़ाई की .
आरक्षण जैसे विवादित विषय को समझने के लिए अपने इतिहास को भी देखना जरुरी रहा है. जिन्हें आज का तथाकथित समाज दलित कहता है उस दलित समाज का हम पर क्या एहशान रहा है ये भी जानना आवश्यक है वरना कुछ ऐसे भी लोग है जो ये कहने से बाज़ नहीं आते की इनका खून ही खराब है इसलिए ये इतना पीछे है वरना कैसे ये पीछे रह जाते ..
मित्रो इस देश में सभी सनातन पन्थियो में जिन किताबो ने अपना सबसे ज्यादा प्रभाव स्थापित किया , जिनके बल पर आज तक हिन्दू समाज एक चुम्बक की तरह आपस में चिपका रहा उसमे ”रामायण” और ”महाभारत” का विशेष स्थान रहा है , महाभारत के रचयिता महर्षि कृष्ण द्विपायन व्यास की माता भी आजकल दलित समझे जाने वाले बिरादरी मछुआरा समाज से थे ,रामायण जिसके बिना हम अपना धार्मिक जीवन ,आध्यात्मिक जीवन सोच भी नहीं सकते उसके भी रचयिता एक दलित ही थे महर्षि बाल्मीकि , बाद में जब हिन्दू समाज में तमाम कमिया व्याप्त हो गयी तो जिन महापुरुष ने धरती पर जन्म लेकर हिन्दू समाज को जोड़ने का कार्य किया वो थे परम आदरणीय आदि शंकराचार्य ,उनके भी गुरु कौन थे जानकार आश्चर्य होगा मित्रो की उनके गुरु उस समय काशी के चंडाल नरेश (जो लोग लाश फुकने का कार्य करते है उन्हें काशी में चंडाल बोला जाता है ) थे ,काशी जो की पंडित और पंडो से भरा रहता था उस काशी में आदि शंकराचार्य का गुरु कौन बना ..एक दलित , महाराजा हरिश्चंद्र को जब कही काम न मिला तो उन्होंने चंडाल का नौकर बनकर काम करने में कोई संकोच न की .. लेकिन हमारे समाज में आज भी कुछ ऐसे लोग है जो की यह कहते फिरते है की इन दलितों का हमेशा का आदत रहा है की ये हमेशा मांगकर ही गुजरा करते हैं. वही हम में से कुछ लोग ऐसे है जो सार्वजानिक मंचो पर स्वीकार करे न करे पर मन ही मन इन दलितों का छुआ खाना , इनके कुओ का पानी पीना नहीं पसंद करते.. मेरा ऐसे लोगो से निवेदन है की वे लोग सर्व प्रथम महाभारत , गीता , रामायण ,चार धाम यात्रा इत्यादी छोड़ दे क्योकि कही न कही ये सब बहुत ज्यादा दलितों से ही उत्पन्न है. यदि दलितों को छुना बुरा है तो भला इन सबको आप ने कैसे छु लिया . यदि दलित जन्मजात मुर्ख है तो उनके लिखे ग्रंथो पर भरोषा कैसे ..??
हमारे इतिहास में दलितों का बहुत बड़ा योगदान रहा है ये तो हमें मानना ही पड़ेगा , उदाहरण तो अभी बहुत है मेरे पास पर समझदार के लिए इशारा ही काफी होता है .
सबसे बड़ा प्रश्न ये है की संविधान द्वारा दिया गया आरक्षण सवर्णों द्वारा किया गया त्याग है या अपने ही बंधू बान्धवों पर सैकड़ो वर्षो तक किया गए अत्याचार का पश्चाताप है .. या फिर मज़बूरी का नाम महात्मा जी है ?? प्रश्न बहुत विकट है और समाज में तीनो बातो को मानने वाले लोग है ये हो सकता है की कुछ को कम लोग स्वीकारते हो , कुछ को ज्यादा .. दलितों पर लिया गया अन्याय ,अत्याचार , अनाचार भी एक सच्चा इतिहास है , और तथाकथित सवर्णों के प्रतिभाओ पर होने वाला कुठाराघात भी एक सच्चा वर्तमान है. तो क्या सवर्ण अपने लोगो के बराबरी के लिए कुछ समय के लिए त्याग नहीं कर सकते या फिर दलित देश में प्रतिभा प्रोत्साहन के लिए अपना मन बड़ा नहीं कर सकते, दोनों ही सोचने का विषय है , लेकिन हाँ इसको सोचने के लिए निजी स्वार्थ ,लाभ ,हानि को अपने से कोसो दूर रखना पड़ेगा. क्योकि त्याग भी एक बड़े ह्रदय को चाहता है और स्वयं को लाभ से दूर रखना भी ..
भारत जैसा देश जहा पर अमीर से अमीर और गरीब से गरीब लोग रहते है , वहा पर सामजिक असमानता होना कोई बड़ी बात नहीं है .. लेकिन क्या ऐसे लोगो को आगे बढ़ाना हम सभी का इस राष्ट्र का अभिन्न अंग होने के नाते कर्तव्य नहीं है ? ऐसे अशक्त , गरीब जनता को सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिलनी चाहिए? सबका अपना अपना तर्क हो सकता है पर मेरा मानना यह है की ऐसे लोग जो समाज में अपने गलती से नहीं बल्कि समाज की परम्पराओ की गलती से पीछे रह गए उनको उसी समाज द्वारा गलती स्वीकार करके आज बराबरी में खड़ा करना ही पड़ेगा , और उस गलती का सुधार कौन करेगा वही समाज करेगा जो इसके लिए उत्तरदायी है , कई लोगो का कहना है की गरीबी ब्रह्मण ,ठाकुर पटेल यादव और दलित देख कर नहीं आती , लेकिन एक समूह विशेष को सैकड़ो साल से गरीबी केवल जाति देखकर ही आई है , बहुत से लोग ऐसे थे जिनके पास इतनी शक्ति थी की वो अपने दम पर कुछ कर सकते थे , समाज में अपना नाम कर सकते थे पर क्या हुआ … केवल जाती देख कर उनकी प्रतिभा चली गयी , सवर्णों के परिस्थिति में भी देश की आज़ादी से लेकर आजतक तमाम परिवर्तन आये , उनमे भी गरीबी बढ़ी पर क्या उनके बढ़ी गरीबी के लिए इस समाज की व्यवस्था जिम्मेवार थी.. मुझे तो नहीं लगता की उनमे आई गरीबी के पीछे कोई सामाजिक व्यवस्था जिम्मेवार रही .. मुझे अपने यहाँ की एक उदाहरण याद आ रहा है जो की इस मुद्दे को समझने के लिए यहाँ पर प्रस्तुत करना ठीक होगा. मेरे गाव से करीब ४ किलोमीटर दूर एक गाव है जहा पर मेरी ही बिरादरी के लोग रहते है जो की राजपरिवार से सम्बद्ध थे और पुरे इलाके में अपने अमीरी के लिए जाने जाते थे उन लोगो के पास खूब जमीने थी इसलिए उनको कोई काम नहीं करना पड़ता था , अपनी जमीन अगल बगल के गरीब लोगो को बटाई पर दे देते थे , और पुरे साल बैठकर खाते थे .. बैठकर खाने से उन लोगो की आदत खराब हो गयी एक तो उनको काम करने की आदत नहीं थी दूसरी खली बैठे बैठे उन लोगो में तमाम तरह की बुरी लत लग गयी सो खेती से आया पैसा कम लगाने लगा सो खेत बेचने लगे एक बार खेत बेचने की आदत लगी तो छुटी नहीं ,आज स्थिति ये है की लोग उस परिवार में रिश्ता ले जाना तक पसंद नहीं करते .. क्या ये समस्या केवल मेरे यहाँ की स्थानीय समस्या है .. ध्यान से सोचेंगे तो जबाब न में ही आएगा .. ये बात अलग है की इसको स्वीकार करना न करना हमारे अहम् के उचाई के ऊपर है.
लेकिन एक और बड़ी समस्या है जिस के लिए मैं सोचता हूँ की केवल मौजूदा आरक्षण व्यवस्था इन दलितों को आगे नहीं ले जा सकती ,बल्कि ये व्यवस्था तो इनमे और बड़े अंतर को जन्म दे रही है . ऐसा हो भी क्यों न जब हर चीज इस देश में वोट बैंक के लिए किया जाता .. क्या दलितों को केवल नौकरी देकर हम उन्हें बराबरी की लाइन में खड़ा कर पायेंगे.. मै कुछ दिनों किसी निजी काम से बस्ती गया हुआ था . मै वहा पर एक लोग के घर पर रुका हुआ था, सुबह के वक़्त उनके घर पर जब चाय का समय हुआ तो उसी वक़्त एक उसी गाव के व्यक्ति आ गए . और बात चीत होने लगी तब तक एक व्यक्ति साइकिल पर ५० – ६० पान मसाला का पैकेट लेकर गुजरा , वो व्यक्ति जोकि बहुत धनाढ्य दिख रहे थे बाकायदा अपनी कुर्सी से खड़े हुए और उनको नमस्कार किये ..पान मसाला बेचने वाले व्यक्ति जो की उम्र में छोटे ही रहे होंगे आशीर्वाद देते हुए निकल गए .. मैंने थोडा सा इंतज़ार के बाद जब वहा कोई नहीं था तब अकेले में उस पान मसाले वाले को इतना सम्मान देने का कारण पूछा.. तो जब उन्होंने कारण बताया तो मै आश्चर्य चकित रह गया.. उन्होंने कहा की वो व्यक्ति जो पान मसाला बेचने जा रहा है वो बाबु साहब (ठाकुर जाति के लोगो को गाव में यही कहा जाता है ) है, सो यदि जयरम्मी (भोजपुरी में आदर सत्कार) न करे तो नाराज़ हो जाते है और गाली गलौच करते है और बोलो तो मार पीट भी करते है ,फिर उन्होंने बताया की उनके पास ८० बीघे जमीन है और एक लड़का है जबकि बाबु साब के पास तो मुस्किल से ४ भाई में ५-६ बीघा ज़मीन है … ये उदाहरण मैंने आपको क्यों दिया ?? इसके पीछे एक मात्र कारण ये था की सरकार केवल आर्थिक विकास करके दलितों को मुख्यधारा में जोड़ना चाहती है जबकि यह विकास केवल एक दिशीय नहीं होना चाहिए. दलितों को मुख्यधारा में लौटना है तो सबसे पहले तो दलितों के मन से ही दलित का भाव , जिसके कारण उनका मनोबल गिरा रहता है , उसको ठीक करना होगा , उसके लिए उनके मन में आत्म गौरव लाना होगा , भारतीय इतिहास में उनका क्या योगदान रहा है समाज के सम्मुख रखना होगा , उनको मानसिक रूप से भी बराबरी का दर्ज़ा देना होगा. सवर्ण समाज भी जब जानेगा की इन दलितों का समाज में कितना महत्व था या है या रहेगा तब उनके मन में भी एक स्वाभाविक अपनापन आएगा ..वरना कानून के डंडे से कब तक दलितों का सम्मान बरकरार रहेगा ? यदि कानून के डंडा स्थायी इलाज़ होता तो उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार जाते ही आंबेडकर की मूर्तिया नहीं तोड़ी जाती.
अब प्रश्न उठता है की दलितों का मानसीक उत्थान कैसे किया जाय ??
मेरा मानना है की प्राइमरी से बच्चो के पाठ्यक्रम में ऐसे विषय डाले जाय जो की बच्चो के मन में समाज के सभी वर्गों के प्रति समानता का माहौल विकसित कर सके , वरना आज कल कई बार अखबारों में पढ़ने को मिल रहा है की बच्चो ने मिड डे मील इसलिए नहीं खाया की उनकी रसोइया एक दलित जाति की औरत थी, जब ऐसे सोच के बच्चे भारत में बड़े होंगे तो कैसे स्थापित होगी समानता इस देश में, उसी स्कूल में पढ़ने वाले दलित बच्चे जब अलग लाइन में बैठकर मिड डे मील का खाना खाते है तो क्यों नहीं इन बच्चो के अन्दर हिन् भावना उत्पन्न होगी. क्यों ये बच्चे जो की बचपन से ही अछुतो सा व्यवहार पा रहे है मौका पाते ही पुरे समाज से बदला नहीं लेंगे?? बच्चो का मन बड़ा कच्चा होता होता है जैसा हम उन्हें सिखाते है वो उनके व्यवहार में चला जाता है फिर व्यवहार से आदत और आदत से मज़बूरी हो जाती है. इसलिए हमे समाज के बीज में ही परिवर्तन करना होगा तभी कुछ वर्षो बाद इसका सकारात्मक परिणाम हमे देखने को मिलेगा ..क्यों न बच्चो में ऐसी आदत डाल दी जाये जिसमे बच्चे अपना नाम तो बोले पर उसके बाद के पूछ (टायटल) को सामान्यतया प्रयोग न करे जैसा की कुछ हिन्दू सामजिक संस्थानों ने किया है और भारी सफलता भी पायी है इस प्रयोग से . इस तरह से कई और प्रयोग किये जा सकते है .
जो बंधू आर्थिक रूप से पिछड़ गए है उनको कैसे आगे बढाया जाय यही पर सबसे बड़ा विवाद है , कुछ लोग कहते है की सरकार उनके लिया अलग से कालेज खोलवा दे, उनके लिए अलग से होस्टल बनवा दे , उनको गोद ले ले इत्यादि ,पर मैं आज इस लेख में आदर्शवादी बातो के स्थान पर प्रयोगात्मक बातो पर लिखना चाह रहा हूँ. मेरा मानना ये है की सर्वप्रथम सभी दलित जातियों को भी पिछड़े वर्ग की तरह सामान्य वर्ग में ट्रांसफेरेबल कर दिया जाय , जैसा की हम देखते है की जैसे ही किसी पिछड़े वर्ग के व्यक्ति की आय एक निश्चित सीमा से ज्यादा होती है वो सामान्य वर्ग में डाल दिया जाता है , यानि कहने का मतलब ये है की क्रीमीलेयर का जो नियम पिछड़े वर्ग के लिए लागु किया गया है , बिलकुल उसी तरीके से उस नियम को SC /ST के लिए भी लागु कर दिया जाय . हम प्रायः देखते है की जो भी दलित के कोटे के नाम पर बच्चे विभिन्न संस्थानों में एडमिसन पाते है घर से बेहद धनि होते है और ऐसे लोगो को आरक्षण की कही कोई आवश्यकता दिखाई नहीं पड़ती , मै ये नहीं कहना चाहता की कोई गरीब आता ही नहीं है पर ये भी जरूर है की ज़रूरतमंदों कीसंख्या १० – २० % ही होती है . इस लिए एक आर्थिक लाइन खिची जाय जिसके उपर के व्यक्ति को अन्य पिछड़े वर्ग , या सामान्य वर्ग में भेजा जा सके.. वही कुछ सवर्ण लोग भी जो की बेहद गरीब हैं उनको भी आर्थिक आधार पर कोटा दिया जाय लेकिन ये कोटा अलग से नहीं होगा .. उदाहरण के लिए यदि किसी परिवार की कुल आय २५००० रुपये सालाना से कम हो तो उसे SC में डाल दिया जाय , किसी परिवार की कुल आय १००००० रुपये से कम हो तो उसे पिछड़े वर्ग में शामिल कर दिया जाय और उनको मिलाने वाला लाभ उसी कोटे से होगा जिसमे वो ट्रांसफर किये जायेंगे. अलग से कोटा न दिए जाने से दो लाभ है पहला ये की सामान्य वर्ग के लोगो के लाभ में कोई कटौती नहीं होगा , दूसरा जब किसी भी जाति का व्यक्ति किसी भी वर्ग में जा सकता है तो सामाजिक विद्वेष और समाज विशेष के लोगो को कुंठित होकर गाली देने की परंपरा में घटोत्तरी निश्चित है. इसलिए इस पर भी हम लोगो को ध्यान देना चाहिए..ये धनी लेकिन तथाकथित दलित वर्ग के लोग एक और समस्या उत्पन्न कर रहे है वो ये की ये लोग अपने तो खा पीकर मस्त है. लेकिन इन्हें इसकी चिंता नहीं है की इनके भाई ही त्रस्त है क्योकि ये पात्र व्यक्ति के लाभ का अपहरण कर ले रहे है ..और साथ ही साथ यह भी देखने को मिलाता है की ये लोग मौक़ा पड़ते ही कई बार गरीब लेकिन तथाकथित सवर्णों से दुर्व्यवहार भी करते है जिसकी वजह से गरीब दलितों को गाली सुननी पड़ती है.. क्योकि जो व्यक्ति उस धनी दलित से अपमानित होता है वो कभी न कभी मौक़ा पड़ते ही किसी अन्य कमजोर दलित पर टूट ही पड़ता है..
अब हमारे कुछ ऐसे मित्र है जो की आरक्षण को सभी समस्याओ की जड़ मानते है या तो उन्हें कई सारे तथ्यों का संज्ञान नहीं है या स्वार्थवश ऐसे तथ्यों से आँख मूंदे हुए है… मित्रो मैं उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर जिले का रहने वाला हूँ .. जो की एक नक्सल प्रभावित इलाका है वह पर देखकर समझ में आता है की जिन गाओ के बच्चे थोडा बहुत भी पढ़ने में ठीक थे वो इसी आरक्षण के बल पर पढ़ लिख कर आगे निकल गए और नाक्सालियो के चंगुल में नहीं आये और इन्ही बच्चो को देखकर गाव के दलित बच्चे मेहनत कर रहे है और आगे बढ़ रहे है , मेरा एक मित्र है जो की मेरे साथ ही पढ़ता था , वो दलित है नाम गुड्डू भारती गर्मियों में पहाड़ पे जाकर पत्थर तोड़ता था और जाड़ो में शाम को ट्रक्टर पर मिटटी लादता था पर आज वह इसी आरक्षण के बल पर आज तमिलनाडु में अभियंता है, तो मुझे लगता है की भारत के ऐसे एक तिहाई जिले जहाँ पे नाक्साल्वाद तेज़ है वह पर यही आरक्षण सवर्णों के लिए सुरक्च्चा का कार्य कर रहा है . वह के सवर्णों को जान प्यारी है गृह युद्ध नहीं …
नक्सल की बात छोड़ दे तो दूसरी तरफ इसाई और मुस्लिम संगठन जो की इस ताक में लगे है की कब उनमे भी आरक्षण लागु कर दिया जाय और वो तेज़ी से हिन्दू दलितों को कन्वर्ट कर सके.. क्योकि जब तक अपना भाई अपना भाई बनकर रहता है तब तक उसके चमड़ी में गन्दगी लगी रहती है और जिस दिन अपना भाई गले में क्रोस लटका लेता है उसकी सारी गन्दगी साफ़ हो जाती है और वो अब हम लोगो के बराबर बैठने का अधिकार पा जाता है , क्रोस पहनने का पैसा मिलता है सो अलग से .. लेकिन फिर भी ये दलित अपने ही लोगो की गालिया सुनकर भी आखिर क्यों हिन्दू बना हुआ है जबकि दुसरे धर्म के लोग उसे अपने सर माथे पर बैठाने को तैयार है..उत्तर कई हो सकते है पर आरक्षण एक बहुत बड़ा कारण है . जब यही लोग कन्वर्ट होकर अधिक मात्र में होकर हम लोगो के ऊपर हमला बोलेंगे तब जाकर शायद हमे इस आरक्षण के महत्व का बोध होगा ..
पर कितना होना चाहिए ये आरक्षण??
मेरा ये स्पष्ट मानना है की पढ़ाई के दौरान व्यक्ति को अवश्य ही आरक्षण मिलाना चाहिए..यदि व्यक्ति प्रोफेसनल लाइन में है तो पहली बार केवल आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए , एक बार पढ़ाई पूरी हो गयी तो उसे खुद अपने दम पर नौकरी हासिल करनी चाहिए. लेकिन मैंने कई बार महसूस किया है की इंटरव्यूव लेने वाले पैनल में यदि जाति विशेष के लोगो की संख्या ज्यादा होती है तो ऐसा कई बार देखा गया की उसी जाती के व्यक्ति का गलत ढंग से चयन हो गया है अतः पैनल में सभी जाति के लोगो को रखा जाय (ये बात कुछ मित्रो को अटपटी लग सकती है पर मैंने पहले ही कहा है की आज मै प्रयोगवादी बाते करूँगा).. और जब नौकरी लग जाय तो उसके बाद की पदोन्नति भी व्यक्ति के कार्य के आधार पर किया जाय.
लोग कहते है की ६० साल तो हो गया कोई सुधार नहीं दिख रहा इसे बंद कर दो उन मित्रो से मेरा कहना है की जो पाप अपने भाई बंधुओ पर हमने १२०० वर्ष तक किया है, उसका पश्चाताप भी तो कम से कम १२० वर्ष तक करना ही पढ़ेगा..
मित्रो आप लोगो को कई बाते केवल बात के आधार पर गलत लग रहा होगा पर मैंने केवल वही लिखा है जो मैंने इस समाज में महसूस किया है कोई आदर्शवाद का झंडा नहीं लहराना था आज ले लेख में…
मित्रो मैंने तो अपना विचार रख दिया है आप लोगो के विचार का इंतज़ार है .. फिर भी प्रश्न खड़ा है की आज का ‘आरक्षण’ सवर्णों का त्याग है या पश्चाताप है या मजबूरी का नाम महात्मा….
आपका अपना
डॉ. भूपेंद्र
०५-०९-२०१२aarak - Copy

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