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हिंदी विकास और भारतेंदु हरिश्चंद्र

ghumantu
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bhartenduमित्रो आज खड़ी बोली के विकास में अहम् योगदान रखने वाले हिंदी भाषा के महापुरुष भारतेंदु हरिश्चंद जी का जन्मदिवस है, सर्वप्रथम उस महात्मा को नमन जिसने हिंदी भाषा को सुव्यवस्थित बनाने में पूरा जीवन समर्पित कर दिया. भारतेंदु हरिश्चंद जी खड़ी बोली के जनक माने जाते है , और खड़ी बोली हिंदी साहित्य के एक कालखंड को उन्ही के नाम पर भारतेंदु युग कहा जाता है ..
अतः हम सभी लोग यहाँ पर इस मंच से खड़ी बोली का ही प्रतिनिधित्व करते है , इस नाते उनको याद करना हम सभी लेखको की न केवल जिम्मेवारी है बल्कि पुनीत कार्य भी है .
भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म ९ सितम्बर १८५० में काशी में हुआ था , आपके पिता श्री गोपाल चन्द भी बनारस में एक अच्छे कवि माने जाते थे ,लेकिन बचपन में ही आपके पिता जी का स्वर्गारोहण हो गया जो की गिरधर दास के नाम से कविताएं लिखा करते थे ,लेकिन गिरधर दास के व्यक्तित्व का हरिश्चंद पर बहुत प्रभाव पड़ चुका था , पिता की मृत्यु के बाद मात्र १५ साल की आयु में आप पुरे परिवार को लेकर पूरी, उड़ीसा में जगन्नाथ जी के दर्शन हेतु गए थे ,रस्ते में बंगाल में रुके जहा पर पुनर्जागरण आन्दोलन चल रहा था ,उससे आप उस छोटी सी ही अवस्था में इतने प्रभावित हुए की आप ने मन में ठान लिया की हिंदी भाषा में भी सामाजिक , ऐतिहासिक ,और पौराणिक नाटको और उपन्यासों को शुरू किया जाएगा. आप ने मात्र १८ वर्ष की आयु में ही बंगाली नाटक विद्यासुंदर का अनुवाद करके हिंदी लेखन में पैर रखा , उस समय हिंदी भाषा के साथ समस्या यह थी की हर २०-३० किलोमीटर पर भाषा में परिवर्तन देखने को मिलाता था अतः आपके सामने समस्या थी की कोई एक सर्वमान्य स्वरुप हो हिंदी भाषा का जिसको सभी लोग समझ सके और स्वीकार भी कर ले वरना जहा के लेखक वह की भाषा इस्तेमाल करने से पुस्तकों के पाठको का दायरा सीमित हो गया था , कोई अवधी लिखता ,तो कोई भोजपुरी , तो कोई हरियाणवी और लेखक भी सीमित ही थे , अतः आप ने सर्वप्रथम खड़ी बोली की नीव रखी, जो की मेरठ के आस पास की बोली को थोडा ठीक और परिमार्जित करके तैयार किया गया , चुकी मेरठ के आस पास की बोली भोजपुरी ,अवधी, मैथली , छत्तीस गड़ी इत्यादि से बहुत खरी होती है इसलिए स्वीकार्यता की कमी दिख रही थी फिर भी आपने अपने दम पर और अकेले दम पर इसे स्वीकार्य बना दिया जो की बाद में महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेम चन्द ,जयशंकर , आचार्य शुक्ल आदि के अथक परिश्रम से पुरे हिन्दीभाषी प्रभाग में स्वीकार्य हो गयी.
वो न केवल एक लेखक थे बल्कि एक बहुत बड़े देशभक्त थे उनका ऐतिहासिक भाषण जो की उन्होंने ददरी मेले में दिया था ”भारत वर्ष उन्नति कैसे कर सकता है” जो की कई दशको से पाठ्यक्रम में भी शामिल है जिसमे उन्होंने स्वदेशी आन्दोलन की शुरूआती नीव रखी थी , उस समय न तो कोई गांधी था न ही पटेल ,न ही भगत सिंह , उस भाषण में जब उन्होंने चीख चीख कर कहा की हमारे पास वे सब तकनीक हज़ारो साल पहले थी जो की अंग्रेजो के पास अब है , तो वह पर उनको सुनने आई भीड़ में आत्म गौरव का संचार हो गया था , उन्होंने अंग्रेजो के उस चाल पर भी करारा वार किया था जो की उन्होंने भारतीय कुटीर उद्यगो को बंद कर अपने यहाँ का सामान भारतीयों को खरीदने पर मजबूर करते थे .. वास्तव में उनके पास सोच थी , राष्ट्र के सर्वांगीण विकास की जिसमे सबको जोड़ने वाली एक भाषा हो , सबके घर में कुटीर उद्योग हो , सब हाथ को काम हो सब पेट को अनाज हो. उन्होंने भारतीयों की अकर्मण्यता को दूर करने के लिए जापानियों का उदाहरण देते हुए कहा था की उन जापानीयो को देखो रोज़ विपदा आती है घर उजाडती है पर फिर लग जाते है उसे बनाने में और तब तक सांस नहीं लेते जब तक की सब ठीक न हो जाय .. मैं उस व्याख्यान का कुछ अंश यहाँ पर रख रहा हु जिससे आप लोगो को शुरूआती खड़ी बोली का स्वरुप भी समझ में आएगा और भारतेंदु की सोच भी …मित्रो पूरा लेख पढ़े न पढ़े पर ये हिस्सा जरुर पढ़े ताकि उनकी सोच से आप लोग रूबरू हो पाए.. ये सोच थी उस समय की जब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद हुए हार से लोगो में खौफ हो गया था , अंग्रेजी हूकुमत का लेकिन किस तरह से सार्वजनिक मंचो पर हरिश्चंद लोगो को स्वदेशी आन्दोलन के लिए प्रेरित करते थे.

”हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी हैं।यद्यपि फस्ट क्लास,सेकेंड क्लास आदि गाड़ी बहुत अच्छी -अच्छी और बड़े बड़े महसूल की इस ट्रन में लगी हैं पर बिना इंजिन ये सब नहीं चल सकतीं, वैसे ही हिन्दुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो ये क्या नहीं कर सकते।इनसे इतना कह दीजिए `का चुप साधि रहा बलवाना´,फिर देखिए हनुमानजी को अपना बल कैसा याद आ जाता है।सो बल कौन याद दिलावै।या हिन्दुस्तानी राजे महाराजे नवाब रईस या हाकिम। राजे -महाराजों को अपनी पूजा, भोजन, गप से छुट्टी नहीं।हाकिमों को कुछ तो सरकारी काम घेरे रहता है,कुछ बाल,धुड़दौड़,थिएटर,अखबार में समय गया।कुछ बचा भी तो उनको क्या गरज है कि हम गरीब गंदे काले आदमियों से मिलकर अपना अनमोल समय खोवैं।
बहुत लोग यह कहैंगे कि हमको पेट के धंधे के मारे छुट्टी ही नहीं रहती बाबा,हम क्या उन्नति करैं?तुम्हरा पेट भरा है तुमको दून की सूझती है। यह कहना उनकी बहुत भूल है।इंगलैंड का पेट भी कभी यों ही खाली था।उसने एक हाथ से पेट भरा ,दूसरे हाथ से उन्नति की राह के कांटों को साफ किया।
अपनी खराबियों के मूल कारणों को खोजो।कोई धर्म की आड़ में,कोई देश की चाल की आड़ में,कोई सुख की आड़ में छिपे हैं।उन चोरो को वहां वहां से पकड़कर लाओ।उनको बांध बांध कर कैद करो। इस समय जो बातैं तुम्हारे उन्नति के पथ में कांटा हों उनकी जड खोद कर फेंक दो।कुछ मत डरो। जब तक सौ दो सौ मनुष्य बदनाम न होंगे,जात से बाहर न निकाले जायंगे,दरिद्र न हो जायंग,कैद न होंगे वरंच जान से मारे न जायंगे तब तक कोई देश भी न सुधरैगा।
देखो , जैसे हजार धारा होकर गंगा समुद्र में मिली हैं ,वैसे ही तुम्हारी लक्ष्मी हजार तरह से इंगलैंड,फरांसीस,जर्मनी,अमेरिका को जाती है।दीआसलाई ऐसी तुच्छ वस्तु भी वहीं से आती है।जरा अपने ही को देखो।तुम जिस मारकीन की धोती पहने वह अमेरिका की बनी है।जिस लांकिलाट का तुम्हारा अंगा है वह इंगलैड का है। फरांसीस की बनी कंघी से तुम सिर झारते हौ और वह जर्मनी की बनी बत्ती तुम्हारे सामने बल रही है।यह तो वही मसल हुई कि एक बेफिकरे मंगनी का कपड़ा पहिनकर किसी महफिल में गए।कपड़े की पहिचान कर एक ने कहा,` `अजी यह अंगा फलाने का है´।दूसरा बोला, `अजी टोपी भी फलाने की है´।तो उन्होंने हंसकर जवाब दिया कि,`घर की तो मूंछैं ही मूंछैं हैं´।हाय अफसोस,तुम ऐसे हो गए कि अपने निज के काम की वस्तु भी नहीं बना सकते।भाइयो,अब तो नींद से चौंको,अपने देश की सब प्रकार से उन्नति करो।जिसमें तुम्हारी भलाई हो वैसी ही किताबें पढ़ो,वैसे ही खेल खेलो,वैसी ही बातचीत करो।परदेशी वस्तु और परदेशी भाषा का का भरोसा मत रखो।अपने देश में अपनी भाषा में उन्नति करो।”

भारतेंदु हरिश्चंद एक साथ नाटक कार , पत्रकार और कवि थे, उन्होंने मात्र १८ वर्ष की ही आयु में पत्रकारिता शुरू कर दिया ,और कवि वचन सुधा नामक पत्रिका के मुख्य सम्पादक हो गए , १८७३ में २३ वर्ष की आयु में अंग्रेजी में हरिश्चंद मैगज़ीन , हिंदी में हरिश्चंद पत्रिका , और बालवोधिनी नामक तीन और पत्रिकाओ के मुख्य सम्पादक के रूप में हिंदी की सेवा शुरू की.
भारतेंदु हरिश्चंद बंगाल के पुनर्जागरण से बहुत प्रभावित थे जहा पर औरतो के स्थिति में सुधार के लिए तमाम आन्दोलन शुरू किया गया था, जिसमे बाल विवाह रोकना ,सती प्रथा बंद करना , विधवा विवाह शुरू करने जैसे काम थे , लेकिन भारतेंदु ने एक कदम आगे बढते हुए इन सब सुधारों के साथ एक और काम शुरू किया जो की उन्होंने उस समय के हिसाब से ,क्या आज के हिसाब से बहुत बदनामी वाला हो सकता था वो था मज़बूरी में यौन शोषण के दलदल में फ़सी वेश्याओं की स्थिति में सुधार का था , उन्होंने न केवल लोगो को प्रेरित किया बल्कि वाराणसी की उस समय की बदनाम गली दालमंडी में वेश्याओं को और उनके परिवार को पढ़ाना शुरू किया वो भी खुद जाकर पढ़ाते थे ,
उन्होंने न केवल पद्य लेखन किया बल्कि गद्य लेखन भी किया उनकी मुख्य रचनाये ..
काव्य संग्रह
१ – प्रेम माधुरी
२ – प्रेम प्रलाप
३ – राग संग्रह
४ – कृष्ण चरित
५ – फुल का गुच्छा
नाटक
१ – वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति
२ – सत्य हरिश्चंद्र
३ – नील देवी
४ – भारत दुर्दशा
५ – अंधेर नगरी (इसे भारत का अब तक का सबसे प्रसिद्द नाटक माना जाता है इसका बहुत सारे भाषाओ में अनुवाद भी किया गया है और इसके नाम पर आज हिंदी भाषा में कहावत भी है)
यह भी जानना जरुरी होगा की भारतेंदु हरिश्चंद्र अपने नाटको के लेखक के साथ साथ मुख्य्कलाकार , निर्देशक , और निर्माता भी हुआ करते थे ..
अनुदित ग्रन्थ
१ – विशाखा दत्त मुद्रा राच्छस
२ – हर्ष रत्नावली
३ – विद्या सुन्दर
४ – कर्पूर मंजरी
५ – दुर्लभ बंधू (यह रचना सेक्सपियर के मर्चेंट आफ वेनिस का अनुवाद था जोकि उनके देहावसान के कारण अधूरा रह गया)
भारतेंदु हरिश्चंद का नाम तो केवल हरिश्चंद था पर भारतेंदु की उपाधि उस समय के सभी महान साहित्यकारों की बैठक में में सम्मान स्वरुप दिया गया .. भारतेंदु हरिश्चंद की मृत्यु मात्र ३५ वर्ष की आयु में ६ जनवरी १८८५ में हो गयी , शायद उन्हें भी अंदाजा था की उनकी आयु कम है शायद इसीलिए उन्होंने १८ वर्ष की आयु से ही लेखन शुरू कर दिया था , मात्र १७ साल के लेखक जीवन में उन्होंने हिंदी के एक ऐसे स्वरुप ओ विकसित किया जिसे आज पूरा भारत स्वीकार करता है . वो एक महान रचनाकार के साथ साथ एक अच्छे अभिनेता , समाजसेवक और पत्रकार थे , हिंदी साहित्य में उनके अमूल्य योगदान को भूला पाना असंभव है ,
उनके सम्मान में भारत सरकार के द्वारा मूल लेखन के लिए सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा भारतेंदु हरिश्चंद पुरस्कार १९८३ से लगातार दिया जा रहा है ,प्रसिद्द कन्नड़ नाटक कार प्रसन्ना द्वारा भारतेंदु हरिश्चंद के ज़िन्दगी पर एक नाटक जिसका नाम ”सीमा पार” है लिखा गया है .
बड़े दुःख की बात है की आज भारत के साहित्यकारों द्वारा जो की उन्ही के लगाये पेड़ का फल खा रहे है उनके जन्मदिवस पर न तो कोई कायदे कार्यक्रम कराया जाता है न ही उन्हें याद किया जाता है . आखिर में ऐसे महान व्यक्तित्व को श्रद्धांजलि … और उन्ही के दोहों से अपनी बात समाप्त करूँगा ..
” निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।।” जिन मित्रो को अर्थ समझ में न आया हो इसका अनुवाद साथ में रख रहा हु
(Progress is made in one’s own language (the mother tongue), as it the foundation of all progress.
Without the knowledge of the mother tongue, there is no cure for the pain of heart. Many arts and education infinite, knowledge of various kinds.
Should be taken from all countries, but propagated in one mother tounge)
आपका अपना
डॉ. भूपेंद्र
९/०९/२०१२

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