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कुछ घटनाए ऐसी होती है की व्यक्ति उनसे सीख ग्रहण करता है. पर कुछ ऐसे लोग होते है जो कुछ भी नया नहीं सीख सकते. ऐसा नहीं है के वे पढ़ते कम है या जानते कम है पर उनके साथ एक समस्या होती है जो कुछ उनके निति , नियम ,परंपरा , विचार और आग्रह को समर्थन करता है उसे तो वो सही मानते है लेकिन बाकी को गलत मान लेते है.
अब ऐसी पढ़ाई का क्या फायदा जो कुछ आप पहले से जानते थे वो यदि आपको मिल गया तब तो ठीक यदि नहीं तो गलत … यानी जहाँ से चले थे वही पहुच गए.
मित्रो करीब ढाई साल पहले एक मशहूर उर्दू पत्रकार अज़ीज़ बर्नी ने के किताब लिखी ”आर एस एस का षड्यंत्र २६/११ मुंबई” जिसका विमोचन कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने किया था. और वो भी अपने सरकार के विरुद्ध जाकर बर्नी साहब का गीत गाना शुरू किया की इस घटना के पीछे आर एस एस का ही हाथ है और बयान दे दिया की २६/११ की घटना में शहीद ए टी एस मुखिया हेमंत करकरे का फोन उनके पास घटना के ठीक पहले आया था जिसमे करकरे ने कहा था की कुछ कट्टर हिंदूवादी संगठन बड़ी आतंकवादी घटना अंजाम देना चाहते है. ये किताब बाज़ार में आया और बिका भी. हिंदी में भी था और ज्यादातर उर्दू में था. उर्दू वाला खूब बिका क्योकि जो लोग इसे पढ़ने वाले थे इससे उन्हें कुछ नयी बात नहीं ग्रहण करनी थी उन्हें आर एस एस के खिलाफ अपने विचारों को केवल फिर से पक्का करना था. ये उर्दू पढ़ने वाले कौन लोग थे ये कहने की जरुरत नहीं.
पर हिंदी वाली किताब भी बिकी उसे लेकर उसका सन्देश जन जन तक पहुचने की जिम्मेवारी कम्यूनिस्टो पर थी इनमे से अधिकाँश वो कम्युनिस्ट थे जो की माओ को मानने वाले है पर सरकारी प्रतिबन्ध की डर से खुद को बाहरी तौर पर मार्क्सवादी कहते है इन्होने खूब मन लगा के इस किताब की पढ़ाई की एक एक बाते रट डाली और लोगो के बिच उनके पैगम्बर बन कर अपना पैगाम देने पहुच गए. कुछ ने तो उन्हें गाली देकर भगा दिया और कुछ ने ध्यान दिया जिन्होंने ध्यान दिया उन्होंने विश्वास नहीं किया क्योकि ये माओवादी भूल गए की यह हिंदी पढ़ने वाला समाज है उर्दू नहीं.
बाद में जब सरकारी जांच आगे पहुची तो सारा मामला खुलता चला गया .. कई सारे घटना के सूत्र भी पकड़ में आ गए और जब यह स्पष्ट होता गया की सबूत के साथ इसका सारा आरोप पाकिस्तान की आतंकी संगठनो पर आना तय है तो अज़ीज़ बर्नी ने दिसम्बर २०१० में पुरे किताब में लिखे सभी लेखो के लिए दैनिक सहारा के मुख्य पृष्ठ पर अपना माफीनामा छाप दिया और कहा की उनके द्वारा संघ के ऊपर लगाये सारे आरोप गलत थे जिनकी भी भावनाओ को ठेस पंहुचा हो मै माफ़ी मांगता हु, ये घटना भी घट गयी लेकिन माओवादी कम्यूनिस्टो ने जिन जिन लोगो के पास जाकर यह जानकारी बाटी थी उनसे यह कहने नहीं पहुच पाए की ‘हमसे गलती हो गयी थी जिस किताब को हमने पढवाया या बाटा था वो गलत तथ्यों पर आधारित था” खैर ये भी कोई बड़ी बात नहीं है इससे बड़ी बात तब हुई जब इस घटना में शामिल आतंकी अबू जिंदाल पकड़ में आया जिसमे उसने कहा की हम लोगो ने घटना को इस तरह से बुनने की कोशिश की थी की कोई भी जेहादी बचने न पाए सबके हाथ में रक्च्चा पहना दिया था, हिन्दुओ के नाम पते वाले परिचयपत्र रख दिए थे लेकिन अजमल कसाब के जिंदा बच जाने से सारा खेल उल्टा पड़ गया उसने सारा राजफाश कर दिया.. उसने ये भी बताया की बाद में कुछ भारतीयों की मदद से ये प्रपंच फैला देते की ये आतंकी मुस्लिम नहीं हिन्दू है और उन्हें आर एस एस से जोड़ दिया जाएगा.
अब बात ये उठती है की वो भारतीय कौन है जिनको अबू जिंदाल या उसका मुखिया हाफ़िज़ सईद इस काम के लिए लगा रखा था? जो की इस घटना का लिंक आर एस एस से जोड़ देते क्या ये अज़ीज़ बर्नी उन्ही लोगो में से एक तो नहीं और माओवादी कम्यूनिस्टो का भी तो इन्होने सहारा नहीं लिया था? माओवादियों पर यह शंका उठना निर्मूल नहीं है क्योकि माओवादी कम्युनिस्ट ( मार्क्सवादी का चोला पहने ) जिस तरह से अफज़ल गुरु के बचाव में खुलकर लोगो तक जाकर कुतर्को का सहारा लेकर बचाव करना शुरू किये और अजमल कसाब को एक अबोध बालक का दर्ज़ा देकर उसे माफ़ करने के लिए कुछ विशेष लोगों में जनजागरण करने लगे उससे इस बात की पुष्टि होती है की सारे आतंकी संगठन एक दुसरे से जुड़े है. चाहे वो इस्लामिक हो या नक्सली. अभी कुछ दिन पहले ही पता चला की सिक्ख आतंकी संगठन ने भी इस्लामिक आतंकी संगठन से हाथ मिला लिया. ये सिक्ख उसी गुरुओ के भक्त है जिनको इस्लामिक आताताइयो ने ने कभी जिंदा जलवाया तो कभी सर कटवाया. कुछ तथाकथित बड़े बुद्धजीवी लोग तो बाकायदा इन आतंकियों को फ़ासी से बचाने के लिए अभियान भी चलाया और लोगो से दस्तखत करवाया.
अभी हाल फिलहाल की घटना है की पाकिस्तान सरकार ने लाहौर के एक चौक का नाम महान क्रांतिकारी भगत सिंह के नाम पर रखने का निर्णय किया उसके लिए सारा काम हो गया था मंत्रिसमूह से अनुमति भी मिल गयी पर कम्यूनिस्टो के मित्र और पाकिस्तान की कट्टर इस्लामिक पार्टी जमात उद दावा के मुखिया हाफीज़ सईद ने इस का जोरदार विरोध किया और सरकार ने अपना निर्णय वापस ले लिया. हाफीज़ सईद ही मुंबई २६-११ का मुख्य आरोपी है इसीको और इसके गुर्गो को बचाने के लिए माओवादी आन्दोलन स्तर पर जुटे है.
अब ध्यान देने वाली बात ये है की भारत में माओवादी भगत सिंह का बहुत दुरुपयोग कर रहे है वो अपने हर कार्यक्रम में भगत सिंह की फोटो लगते है. उनके भाषण को लोगो के बिच प्रसंग इत्यादि से हटाकर अपने अनुसार फैलाते है पर इन्ही का मित्र भगत सिंह के नाम पर एक जगह का नाम नहीं रखने दिया और उसे इतना बुरा लगा की उसने हिंसा शुरू करने की धमकी दी. लेकिन अब तक कम्यूनिस्टो की तरफ से विरोध का एक स्वर नहीं उभरा. कारण स्पष्ट है की ये माओवादी कम्युनिस्ट भगत सिंह का केवल इस्तेमाल कर रहे है और इनके असली यार और हथियार तो ये आतंकी है. और भारत में हो रहे आतंकी घटनाओ में इस्लामिक आतंकी संगठन की भूमिका को नगण्य करने और हिन्दू आतंकवाद नामक नए शब्द को अधिक प्रचलित करने की जिम्मेवारी इन्होने ले रखी है. शायद इसीलिए इस्लामिक आतंकवाद की हर घटना पर चुप्पी रखने वाले ये माओवादी हिन्दू संगठनो की एक छोटी से छोटी घटना पर सबसे पहले पोस्टरबाज़ी करते है.
इसी बीच खबर आ रही है की अजमल कसाब को डेंगू हो गया है. दिग्विजय सिंह के बयान का इंतज़ार है जिसमे वो उस मच्छर को आर एस एस का एजेंट बताएँगे. और कम्युनिस्ट उस मच्छर के मृत्यु दंड की बात करेंगे. पर डेंगू का असली बुखार कसाब को नहीं कम्यूनिस्टो को चढ़ा हुआ है.
डॉ भूपेंद्र
६-११-२०१२
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