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क्या नग्नता ही स्त्री स्वतंत्रता है ?

ghumantu
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इस राष्ट्र में स्वतंत्रता का आगमन सन १९४७ में ही हो गया था. पर भारत में मातृत्व शक्ति के स्वतंत्रता के आगमन का आहट उससे पहले ही सुनाई दे दिया था जब राजा राममोहन राय , इश्वरचंद विद्यासागर जैसे महान विभूतियों ने महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ बिगुल बजाकर जंग की शुरुआत कर दी थी फलस्वरूप अंग्रेजो के सत्ताधीशो को भी भारत वर्ष में व्याप्त स्त्री अत्याचारों के प्रति कानून बनाना पड़ा जिसके कारण सती प्रथा जैसे दुष्कृत्यो से समाज को छुटकारा मिला , ईश्वरचंद विद्यासागर के खुद के पुत्र ने अपना विवाह उस समय काल में एक विधवा से कर लिया और समाज सुधारको का एक बड़ा वर्ग विधवाओं को न्याय दिलाने के लिए आन्दोलन स्तर पर लग गया. बाल विवाह जैसी कुप्रथा रोकने के लिए भी अंग्रेजी हुकूमत ने क़ानून की घोषणा की और जब पदाक्रांत भारत में चुनाव की घोषणा हुई तो यूरोपीय और इस्लामिक देशो से बिलकुल हटकर भारत में महिलाओं को वोट देने का पूरा अधिकार प्रदान किया गया जबकि अधिकाँश पश्चिमी देशो में महिलाओं को वोट देने का अधिकार १९६०-१९७० के आस पास मिला.
पर फिर भी भारत में आज तक स्त्री पुरुषो में बराबरी का स्तर नहीं आ पाया , स्त्रीयों को आज भी असमानता की भावना का सामना करना पड़ रहा है आज भी स्त्रीयों को समाज में दोयम दर्जे का स्थान ही प्राप्त है. अधिकाँश स्थानों पर महिलाओं का यही हाल है , महिलाओं के स्वास्थ्य एवं शिक्षा की स्थिति बहुत ही खराब है घरेलु वातावरण में रोज़ ही वो किसी न किसी दुर्व्यवहार का सामना करती ही रहती हैं. आज भी महिलाओं को घर से बाहर जाकर काम करने में एक बड़े पुरुष वर्ग को आपत्ति है. पर बढ़ते वैश्वीकरण के दबाव में इन सब शोषित और कुपोषित मातृत्व वर्ग के बीच एक ऐसा महिला वर्ग भी उपजा जो की इन सब असमानताओ , कुपरिस्थितियो और समस्याओं से पूर्णतया मुक्त था अब इनमे भी दो तरह की महिलाए थी एक जो पारिवारिक संस्कार , सद्चरित्रता और सद्भावना से ओत प्रोत थीं वही दूसरी जो की पारिवारिक संस्कार , सद्चरित्र इत्यादि बातो से पूर्णतया दूर एवं इन सुसंस्कारो को अपना बंधन मात्र मानती थी. पहला वर्ग तो अपने सद्भावना के कारण अपने अन्य शोषित बहनों के मुक्ति का मार्ग ढूढ़ने लगी और अपने परिवार को भी संस्कारी बनाये रखा अतः उन परिवार से निकलने वाले संस्कारी बालक , बालिकाए उनके सुविचारो के वाहक बन गए और महिला मुक्ति के मार्ग भी.
दूसरी तरफ वे महिलाए थी जो की न तो संस्कार जानती थी न ही सद्चरित्र उनके लिए अपने संस्कृति अपनी परम्पराओं को तोड़ना ही स्वतंत्रता हो गया और ये भी आंकलन नहीं की की क्या सही है क्या गलत ? जो भी पश्चिम से मिला सब सर्वश्रेष्ठ है इस भावना से अपना विरोध और दूसरो को गले लगाने का एक नया परंपरा शुरू हो गया ये महिलाए स्वयं तो संस्कारी थी ही नहीं सो इनके बच्चे को भी भी इन्ही के रास्ते पर जाना तय था.
ऐसी कुविचारी , निकृष्ट ,कुचरित्र महिलाओं ने कभी भी अपने महिला समाज का उठाने में कोई भूमिका नहीं अपनाई बल्कि अपने परिवार में असंस्कारी बालक बालिकाओं को रोपित कर समाज की स्थिति और खराब करने में जिम्मेदारी निभायी. पुरुषो से ज्यादा महिलाओं को संस्कार की जरुरत होती है पुरुषो से ज्यादा महिलाओं को नैतिक होने की जरुरत होती है, क्योकि महिलाए ही परिवार की आधार होती है. वो ही बच्चो की प्रथम गुरु होती है, वही बच्चो को संस्कारी बनाती है. और यह एक सामान्य दृष्टि की बात है की हम बहुधा देखते है की जिस घर में पिता निकृष्ट , शराबी या नीच कोटि का निकल जाता है वह यदि माता ठीक होती है तो बच्चे अपने पिता के दुर्गुणों से दूर गुनी और बुद्धिमान ही होते है जबकि किसी परिवार के सभी पुरुष ठीक हो लेकिन महिला खराब हो गयी तो निश्चित ही उस परिवार की पूरी अगली पीढीयां खराब हो जाती है.
यदि प्रकृति ने माँ को परिवार का आधार बनाया है तो , उस माँ को संस्कारी होने की मांग करना क्या स्त्रीयों की स्वतंत्रता में बाधक है ?? बहुत सारी पश्चिमी मानसिकता से ग्रसित महिलाए इसे एक घटिया सोच करार देती है और पूछती है की आखिर संस्कार की जिम्मेवारी महिलाओं पर पुरुषो से ज्यादा क्यों ?? क्या इस प्रश्न का कोई जबाब है??
जो प्रश्न प्रकृति से पूछा जाना चाहोये वो प्रश्न ये महिलाए पुरुषो से जानना चाहती हैं.
अब कोई पुरुष यदि यह पूछे की बच्चे ज्यादा प्रेम माँ से क्यों करते है पिता से क्यों नहीं , स्नेह दिखाने की जीतनी कला स्त्रीयों को प्राप्त है उतनी पुरुषो को क्यों नहीं ??? बच्चो को गर्भ धारण करने की शक्ति सिर्फ महिलाओं को पुरुषो को क्यों नहीं ?? बच्चो के शुरूआती भरण पोषण की शक्ति केवल महिलाओ को क्यों प्राप्त है पुरुषो को क्यों नहीं ??
क्या हम प्रकृति प्रदत्त गुणों पर टकराकर कुछ प्राप्त कर सकते है?
कुछ लोगों ने कहा की स्त्रीयों को मर्यादित कपडे पहनना चाहिए इस पर हमारे राष्ट्र के महिला आयोग की मुखिया ने नाखुशी जता दी , मीडिया में भयंकर विरोध इस मुद्दे पर होता ही रहता है. स्त्री आखिर अपने आप को क्या समझती है यह बात हम उसके वस्त्रो से ही निर्धारित करते है , हमारे देश की परंपरा और संस्कृति में उसे भी आत्मा का दर्ज़ा प्राप्त है न की केवल नीरा शरीर का. जबकि पश्चिम में और अरब की कुसंस्कृति में उन्हें केवल शरीर का ही दर्ज़ा प्राप्त है से एक उसे दिखाने में लगा रहता है तो दूसरा उसे ढकने में. पर क्या यही सोच हमारे समाज में आज नहीं फ़ैल गयी कुछ लोग है जो पर्दा प्रथा को जारी रखना चाहते है तो कुछ उसे नग्नता के उस स्तर पर ले जाने की फिराक में है जहाँ सभ्यों का सर नीचा करके जमीन देखना ही बचाव के एक मात्र लगता है. क्या ये दोनों मार्ग उचित है??
निश्चित ही मेरे मत से नहीं …. यदि स्त्री केवल शरीर नहीं तो उसे क्यों ढकना और क्यों दिखाना? उसे मर्यादित ढंग से रहना ही चाहिए. स्त्रीयों से मर्यादित कपडे की उम्मीद करने पर , पश्चिमी विचारों से ओत प्रोत महिलाए कहने लगती हैं की ये महिलाओं की स्वतंत्रता का हनन है. आखिर वो कौन सी मानसिकता है जिसके कारण महिलाए जब मर्यादित कपडे पहनती है तो उन्हें ऐसा लगता है मानो उनकी स्वतंत्रता हर ली गयी हो. क्या नग्नता के उचाई पर ही पहुच कर स्वतंत्रता का बोध हो सकता है. कुचरित्र और असंस्कारी महिलाए ही नग्नता में स्वतंत्रता का अनुभव प्राप्त करती है. इसको समझने के लिए एक उदाहरण लेते है ऐसी कल्पना करते है की एक संस्कारी परिवार की बालिका को एक अलग स्थान पर ले जाकर उसे यह कह दिया जाय की तुम जो करना चाहो कर लो जैसा पहनना चाहो पहन लो तुम्हे कोई कुछ नहीं कहेगा तो क्या वह नग्नता का प्रदर्शन करेगी… क्या वो निर्लाज्ज़ता को अपना ध्येय चुनेगी?? निश्चित ही नहीं क्योकि उसके दिमाग में ये गन्दगी डाली ही नहीं गयी की स्त्री की स्वतंत्रता का मतलब नग्नता. हम पहले ये घटिया सोच बच्चो में रोपित करते है की शरीर का प्रदर्शन ही स्वतंत्रता है जिस कारण बाद में यह समस्या आती है की मर्यादित कपड़ो में महिलाओं को परतंत्रता का बोध होता है.
यदि वास्तव में भारत वर्ष में स्त्रीयों का विकास करना है तो उन्हें संस्कारी सद्चरित्र और मर्यादित बनाना ही पड़ेगा , क्योकि स्त्रीयां ही समाज की आधार है यदि उनका पतन होगा तो समाज जरुर अधोगति को प्राप्त होगा. ऐसी सोच भी हमारे सामने चुनौती बनकर खडी है जो की महिलाओं के स्वतंत्रता के मुख्य आन्दोलन को जिसमे उनको समाज में बराबरी का हक दिलाना ध्येय को खीच कर ऐसे निकृष्ट मार्ग पर ले जा रहा है जहा पर महिलाए खुद अपने आपको और ज्यादा खराब स्थिति में पाएंगी .
डॉ भूपेंद्र

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