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बाबा साहेब आंबेडकर और राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ

ghumantu
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कामरेडों, सेकुलरों, तथाकथित दलित विचारकों एवं बहुजन के प्रचारकों को यह बात बहुत बुरा लग रहा है की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आखिर क्यों बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की जयंती मना रहा है?? और इन तथाकथित विचारकों की तरफ से यह सन्देश देने की कोशिश भी हो रही है की मानों बाबा साहेब आंबेडकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में कोई पुराणी शत्रुता रही हो.
इस झूठ का प्रचार करने वाले ये तथाकथित विचारक यह बात भूल जाते है की संघ और बाबा साहेब में तब भी कोई शत्रुता नहीं थी जब वो ज़िंदा थे और तब भी कभी नहीं हुई जब की उनकी मृत्यु हो गयी. वीर सावरकर ने जब रत्नागिरी में जाती उन्मूलन आंदोलन चलाया तो न केवल बाबा साहेब उस आंदोलन के मुरीद हुए बल्कि खुले शब्दों में पात्र लिख कर तारीफ़ भी की और साथ ही यह भी कहा की ऐसे आंदोलन पुरे देश में करने की जरुरत है. 1939 में नागपुर के संघ शिक्षा वर्ग में बाबा साहेब बिना बुलाये ही पहुंच गए उस समय संघ के प्रथम सरसंघचालक डॉ हेडगेवार जीवित थे और उस शिक्षा वर्ग में उपस्थित थे. दोनों लोग दोपहर में साथ ही भोजन किया (एक दलित और ब्राह्मण का साथ भोजन करना उस समय बड़ी बात थी) और उसके बाद शिक्षार्थियों से मिलाने का क्रम शुरू हुआ. बाबा साहब को यह देखकर आश्चर्य हुआ की यहाँ पर कोई किसी का जाती पूछे बिना ही साथ में खेल रहे है, एक साथ भोजन कर रहे है और एक दूसरे के सहभागी भी हो रहे हैं. बाबा साहेब इतने प्रभावित हुए की उसी दिन शाम का बौद्धिक भी उन्होंने ही लिया. बाबा साहेब को निकृष्ट कामरेडों ने इस तरह से चित्रित किया मानों की वह धर्मविरोधी हों. मगर वास्तविकता यह थी की उनके धर्म बहुत मायने रखता था. चाहे श्री ज्योतिबा फूले रहे हो अथवा गाडगे बाबा ये सभी गुरु हिन्दू धर्म सुधारक ही थे. 6 फरवरी 1954 को आचार्य अत्रे द्वारा निर्मित फिल्म महात्मा फुले के उद्द्घाटन के समय उन्होंने बड़ा महत्वपूर्ण बात रक्खा. उन्होंने कहा ” मंत्री देश का उद्धार नहीं कर सकते, जिसने धर्म को भली भाति समझा है वही देश को को तार सकता है. महात्मा फुले ऐसे ही धर्म सुधारक थे. उन्होंने निकृष्ट कम्युनिस्टों की तरफ इशारा करते हुए कहा की ” विद्या, प्रज्ञा, करना, और मैत्रीभाव इन धर्मतत्वों से प्रत्येक को अपना चरित्र विकसित करना चाहिए. करूणारहित विद्यावान को मैं कसाई समझता हूँ.
बाबा साहेब के नाम पर वर्ग विशेष के द्वारा पार्टी विशेष की वोटों की खेती चलती रहे इसलिए बाबा साहेब की छवि को धूमिल किया गया और जानबूझकर उन्हें ब्रह्मणविरोधी करार दिया गया. इस विषय में डॉ आंबेडकर की दृष्टि दूरगामी थी वो जानते थे की उनका वोटों के लिए इस्तेमाल किया ही जाएगा इसलिए उन्होंने ने 14 जनवरी 1946 को सोलापुर के भाषण में अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी. उन्होंने कहा ” ब्राह्मण जाती से मेरा कोई झगड़ा है ही नहीं. दूसरों को नीचे समझने की प्रवृत्ति से मेरा संघर्ष है. भेदभाव की दृष्टि रखने वाले गैरब्राह्मण से से ज्यादा महत्वपूर्ण मेरे लिए अभेद्य दृष्टि रखने वाला ब्राह्मण है.”
बाबा साहेब ने बौद्ध धर्म अपनाने का निर्णय लिया तो इसके विषय में उन्होंने कहा था ” एक बार मैं गांधी जी से छुआछूत के प्रश्न पर चर्चा करते हुए मैंने कहा था की इस विषय में मेरा आप से विरोध होने पर भी समय आने पर मैं ऐसा मार्ग चुनूंगा जिससे देश का कम से कम अहित हो. इसलिए बौद्ध धर्म अपनाकर मैं देश का अधिक से अधिक हितसाधन कर रहा हूँ. बौद्ध धर्म भारतीय संस्कृति का ही भाग है. इस देश की संस्कृति, परम्परा, इतिहास को ज़रा भी आंच न आये इसकी चिंता मैंने की है. इस देश की संस्कृति और परम्परा के विध्वंसक के रूप में इतिहास में मैं अपना नाम नहीं लिखवाना चाहता”
देश के संस्कृति और परम्परा के प्रति इस कदर सम्मान रखने वाले बाबा साहेब पर इस देश के हर संस्कृति और परम्परा का विरोध करवाने वाले कामरेडों द्वारा कब्ज़ा किया जाना वास्तव में चिंता जनक है.
एक सं 1964 में बाबा साहेब पर एक पत्रिका का विशेषांक निकलना था. उस समय संघ सरसंघचाक श्री गुरु गोलवलकर थे. उनसे कहा गया की आप भी डॉ आंबेडकर पर अपने विचार लिखिए. श्री गुरु जी ने लिखा ”स्वामी विवेकानंद ने भविष्यवाणी किया था की इस देश को अस्प्रश्यता के जाल से निकालना अत्यावश्यक है. और यह काम वही व्यक्ति कर सकता है जिसमे आदि शंकराचार्य सी प्रज्ञा और गौतम बुद्द सी करुणा हो. जब बाबा साहेब अम्बेडकर को मनन करता हूँ तो ऐसा लगता मानो स्वामी विवेकानंद का भविष्यवाणी बाबा साहेब के लिए ही थी और इसी रूप में मैं उनको स्वीकारता हूँ.”
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारकों और स्वयंसेवकों के लिए प्रातः स्मरणीय श्लोकों का जब संकलन हुआ जिसे एकात्मता स्त्रोतम के नाम से जानते हैं तो उसमे डॉ आंबेडकर का नाम भी डाल दिया गया, इस तरह से पचासों साल से बाबा साहेब संघ के सभी प्रचारकों और स्वयंसेवकों के लिए संस्थगत रूप से प्रातः स्मरणीय हो गए.
ब्राह्मणवादियों का एक बड़ा तबका भी बाबा साहेब को गाली देने में आगे रहता है, इन्हे इस बात से आपत्ति है की बाबा साहेब ने हिन्दू धर्म का त्याग क्यों कर दिया. इस विषय में बाबा साहेब ने बड़ा सटीक उत्तर दिया है ” मैं तो नासिक के कालाराम मंदिर में दर्शन का अधिकार प्राप्त करने के लिए सत्याग्रह करने वाला व्यक्ति हूँ. आप लोगों ने ही मुझे राम जी से दूर ठेल दिया. मेरी आकांक्षा तो हिन्दू धर्म में सुधार करने की थी.
बाबा साहेब का ठेका लेकर उन्ही के विचारों का अपमान करने वालों को संघ से समस्या होना लाज़िमी है क्युकी इससे उनके वोटों की ठेकेदारी खत्म हो जायेगी. लेकिन सत्य की ताकत होती है की वह एक न एक दिन बाहर आती ही है और ऐसा ही कुछ बाबा साहेब के विचारों में भी है.

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